Tuesday, 10 September 2013

राह



किस राह पे हम आज यूँ ही चलने लगे हैं ?
दुनिया के रंग में क्यूँ ढलने लगे हैं?

मोम का जिगर है तो बचें जी आग से,
हाय ! क्या करें जो आह से पिघलने लगे हैं ....

गरूर था कि सबको भी अपने सा बना देंगे,
अब ख़ुद को देख , हाथ अपने मलने लगे हैं ...

बताये ये कोई हमें , क्या ठीक , क्या ग़लत है?
फिर ज़िन्दगी के दांव पेंच चलने लगे हैं ....


जी चाहता है आज लिखें यक नया फ़साना ,
आ आ के लफ्ज़ कागजों पे टलने लगे हैं ....

चल फिर कोई ठोकर लगा, कर दे लहू लुहान,
ए ज़िन्दगी हम आज फिर संभलने लगे हैं |

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