Tuesday, 24 September 2013

कुछ और है...

बहुत कश्काश भरी है ज़िन्दगी की राहें
  दौड़ता कोई और है और थकता कोई और है...

कुछ यु उलझे  है अरमानो के रिश्ते
  पुकारते किसी और को है सुनता कोई और है...

बढ जाते है फासले दिलो के
  जब कोई कहता कुछ और है और कोई समझता  कुछ  और है...

इस कदर बदला है हवा ने रुख अपना
  आग लगती कही और है और धुआ उठता कही और है...

लौट आता है बारिशो का मौसम 
  जब रोता कोई और है और भीगता कोई और है...

मुश्किल सी हो जाती है अक्सर 
  जब मन चाहता कुछ और है और दिल करता कुछ और है...

हकीकत की दुनिया से वाकिफ  है सब यहाँ 
  जहा दीखता कुछ और है और होता कुछ और है......!!!





Tuesday, 10 September 2013

राह



किस राह पे हम आज यूँ ही चलने लगे हैं ?
दुनिया के रंग में क्यूँ ढलने लगे हैं?

मोम का जिगर है तो बचें जी आग से,
हाय ! क्या करें जो आह से पिघलने लगे हैं ....

गरूर था कि सबको भी अपने सा बना देंगे,
अब ख़ुद को देख , हाथ अपने मलने लगे हैं ...

बताये ये कोई हमें , क्या ठीक , क्या ग़लत है?
फिर ज़िन्दगी के दांव पेंच चलने लगे हैं ....


जी चाहता है आज लिखें यक नया फ़साना ,
आ आ के लफ्ज़ कागजों पे टलने लगे हैं ....

चल फिर कोई ठोकर लगा, कर दे लहू लुहान,
ए ज़िन्दगी हम आज फिर संभलने लगे हैं |